Mahashivratri special: एमपी में ऐसा गांव जहां हर घर में होता है शिवलिंग का निर्माण
खरगोन जिला मुख्यालय से करीब 60 किमी दूर नर्मदा के तट पर बसा गांव बकावां। एक ऐसी बस्ती जहां गली-गली में शिवलिंग गढ़े जाते हैं
खरगोन जिला मुख्यालय से करीब 60 किमी दूर नर्मदा के तट पर बसा गांव बकावां। एक ऐसी बस्ती जहां गली-गली में शिवलिंग गढ़े जाते हैं। नर्मदा के पत्थरों को तराशरकर उन्हें शिवलिंग की सूरत देने वाले इस काम में एक दो परिवार नहीं बल्कि आधा गांव ही जुटा है। यह गांव दशकों से शिव के भरोसे है या यू कहें कि करीब 100 परिवारों के गुजर-बसर का जरिया ही शिवलिंग निर्माण है।
शिवलिंग बनते कैसे हैं कारागीर उसे कैसे तरसता है और उसी शिवलिंग को मंदिर में स्थापित होने के बाद शिवलिंग निर्माण करने वाले खुद को खुशनसीब समझते हैं कि मेरे बनाए गए शिवलिंग मंदिर में स्थापना के बाद पूजा जाता है एक लंबी प्रोसेस के बाद शिवलिंग बनाया जाता है नर्मदा तट से सटे तटीय इलाकों से बड़े-बड़े पत्थर निकाले जाते हैं उन पत्थरों को हथौड़े की चोट मारकर परखा जाता है उसके बाद नाव में रखकर अपने घरों तरफ लाया जाता है वहां पर उस शिवलिंग को तराश कर शिवलिंग बनाया जाता है।
कहतें हैं नर्मदा का हर कंकर शंकर के समान है। इस बात को सार्थक कर दिया है रेवा के तट पर बसे बकावां के रहवासियों ने। पत्थरों पर विशेष कारीगरी कर उन्हें शिवलिंग का आकार देने व इसी के बूते अपने परिवार का भरण पोषण करने की यह परंपरा करीब 150 साल पुरानी हैं। ग्रामीणों के मुताबिक यहां से अहिल्याबाई होलकर ने पहला शिवलिंग बनवाया था। इसके बाद यह परिपाठी ही शुरू हो गई और ग्रामीणों ने इस काम को व्यवसाय के रूप में स्थापित कर दिया। आलम यह है कि यहां के शिवलिंग देश ही नहीं विदेशों में भी निर्यात किए जाते हैं।
ग्रामीणों के मुताबिक शिवलिंग पर यहां सालाना टर्नओवर 80 लाख से भी ज्यादा का है।
यहां 1 इंच से 27 फीट तक के शिवलिंग गढ़े जाते हैं। इनकी कीमत दस रुपए से लेकर चार लाख रुपए तक है। यहां के पत्थरों की खासियत यह है कि कटिंग के बाद शिवलिंगों पर ओम, तिलक, सहित अन्य धार्मिक आकृतियां स्वत: ही उभरती है, जो खरीदारों के लिए आकर्षण का केंद्र बिंदू है। ओम आकृति वाला शिवलिंग ऊंचे दामों पर बिकता है।